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प्रकृति के साथ जीना सिखाता है चातुर्मास

पूनम नेगी

अषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी से देवोत्थानी एकादशी तक की चार महीनों की अवधि का सनातन हिन्दू संस्कृति में विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। वैदिक मनीषियों ने चार माह के इस चातुर्मास काल को शारीरिक व मानसिक उत्कर्ष की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है। पौराणिक मान्यता है कि देवशयनी एकादशी से विश्व के पालनकर्ता भगवान विष्णु चार माह की योगनिद्रा में चले जाते हैं और उनके साथ ही उनकी सहायक देवशक्तियां भी निष्क्रिय हो जाती हैं। फलत: आसुरी शक्तियों की ताकत बढ़ जाती है। ऐसे में इन नकारात्मक शक्तियों से निपटने के लिए इस अवधि में सृष्टि संचालन का दायित्व महादेव स्वयं अपने कन्धों पर उठाते हैं। इसी कारण चौमासे में विशेष रूप से शिव पूजन व अभिषेक की परम्परा है।

भारत के सनातन ज्ञानतंत्र की इस वैज्ञानिकता को आधुनिक संदर्भों में कहीं अधिक गहराई व बारीकी से समझने व आत्मसात करने की जरूरत है। हमारे तत्वदर्शी ऋषि-मनीषियों की अनुभूत मान्यता थी कि प्रकृति का हमारे मन व देह से गहरा नाता है। इसीलिए उन्होंने वर्षा ऋतु में हमारी जीवनी शक्ति को मजबूत बनाए रखने करने के लिए चार माह की इस अवधि में पूजा-पाठ, जप-तप योग व ध्यान के साथ आहार-विहार के तमाम नियम व उपनियम निर्धारित किए थे।

सूत्र रूप में कहें तो चातुर्मास काल हमें सही मायनों में प्रकृति को सहेजना सिखा कर संयम और सदाचार की प्रेरणा देता है। ज्ञात हो की वैदिक साहित्य में हरि का अर्थ सूर्य, विष्णु, अग्नि आदि से भी है। हरिशयनी एकादशी से हरि के योगनिद्रा में जाने के पीछे का मूल भाव प्रकृति में अग्नि तत्व की न्यूनता और जल तत्व की अधिकता को दर्शाता है। भारतीय आयुर्वेद के मनीषियों के अनुसार सूर्य या अग्नि तत्व पोषण की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण होते हैं तथा वर्षाकाल में प्रकृति के सापेक्ष शरीर की जठराग्नि मन्द पड़ जाने से पाचन शक्ति कमजोर हो जाने से उदर व संक्रामक रोगों का प्रसार होने लगता है। मौसम में सूर्य के ताप में धीरे-धीरे कमी और बरसात के साथ प्रकृति में जल तत्व की अधिकता से नमी या सीलन के कारण प्रतिरोधक क्षमता में कमी के कारण संक्रामक रोगाणुओं को पनपने का वातावरण मिल जाता है।

प्रतीत होता है कि हमारे वैदिक मनीषी वर्षाकाल में पनपने वाली इन व्याधियों से भली भांति परिचित थे; तभी तो उन्होंने इन रोगों से बचाव के जो नियम सदियों पहले बनाए थे, उनकी प्रासंगिकता आज भी जस की तस है। हमारे स्वास्थ्य विज्ञानियों की वर्षा ऋतु में देर से पचने वाले गरिष्ठ मसालेदार तैलीय व बासी भोजन, मांसाहार, बहुत ठंडे पेय के सेवन से बचने, दूध, दही व साग से परहेज करने तथा सादा सात्विक आहार लेने की सलाह को अब आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सक भी उचित मान रहे हैं ताकि जीवनी शक्ति और मस्तिष्क की क्रिया में संतुलन बना रहे।

चातुर्मास के शास्त्रीय विधानों का मूल उद्देश्य मनुष्य को त्याग और संयम की शिक्षा देना भी है। इन नियमों के पालन से आत्मानुशासन की भावना जागृत होती है तथा खानपान और आचार-विचार की शुद्धि से आध्यात्मिक साधना फलीभूत होती है। प्राचीन काल में साधु, संत चातुर्मास के दौरान एक ही स्थान पर रुक कर स्वाध्याय व प्रवचन-सत्संग द्वारा स्वयं की आत्मोन्नति के साथ जन सामान्य का भी आध्यात्मिक विकास किया करते थे, यह परम्परा आज भी किन्हीं अंशों में कायम है।

श्रीरामचरित मानस के किष्किंधा कांड में भगवान श्रीराम द्वारा वर्षाकाल में देवताओं द्वारा निर्मित गुफा में स्वाध्याय, धार्मिक चिंतन एवं शास्त्रार्थ करने का सुन्दर वर्णन मिलता है। बौद्ध व जैन धर्म में भी चातुर्मास का विशेष महत्व है। ये लोग इसे वर्षा वास कहते हैं। जैन मुनि वर्षा काल में धरती से निकलने वाले जीवों को हिंसा से बचाने के लिए एक ही स्थान पर रुककर स्वाध्याय, सत्संग व आध्यात्मिक ऊर्जा का विकास करते हैं।

जानना दिलचस्प हो कि एक ओर देवताओं के सो जाने का तर्क सामने रख आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी से शुरू चौमासे में विवाह, लग्न, मुण्डन, यज्ञोपवीत, शिलान्यास, नवगृह-प्रवेश व मंदिर तथा मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा आदि पर प्रतिबंध रहता है क्यूंकि हिंदू धर्म का प्रत्येक मांगलिक कार्य भगवान विष्णु को साक्षी मानकर किया जाता है। चातुर्मास काल में पड़ने वाले पर्वों की शृंखला आषाढ़ माह की गुरु पूर्णिमा से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा (देवोत्थानी एकादशी) पर आकर थमती है।

इसके बीच हरियाली तीज, नागपंचमी, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, विजयदशमी, अहोई अष्टमी, करवा चौथ, दीपावली, भैया दूज और नदी स्नान के विशेष महत्व को दर्शाने वाली छठ पूजा जैसे लोकपर्व के साथ पितृपक्ष का पखवाड़ा और देवी आराधन का आश्विन नवरात्र भी इस पर्वकाल की धार्मिक व आध्यत्मिक महत्ता को दर्शाता है। सूत्र रूप में कहें तो चातुर्मास काल स्वास्थ्य संरक्षण और आध्यात्मिक विकास दोनों ही दृष्टियों से संत व गृहस्थ दोनों वर्गों को अनूठा अवसर उपलब्ध कराता है।



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