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प्लास्टिक से दुश्वारियां : सुविधा बनी दुविधा

जब प्लास्टिक की खोज हुई तो मनुष्य के जीवन में जैसे क्रांति आ गई। बहुत सारी जरूरत की वस्तुएं बनाने के लिए पहले लकड़ी और लोहे का इस्तेमाल करना पड़ता था, बाजार से सामान लाने में परेशानियां होती थीं। वस्तुओं को खराब होने से बचाने के लिए तरह-तरह के उपाय करने पड़ते थे, वह सब प्लास्टिक ने आसान कर दिया। इतना ही नहीं, वाहनों का वजन कम करने, अंतरिक्ष में उपग्रह आदि भेजने, तस्वीरें लेने, कंप्यूटर, मोबाइल जैसे उपकरण तैयार करने में क्रांतिकारी विकास हुआ। मगर प्लास्टिक के बढ़ते अतार्किक उपयोग की वजह से यह सुविधा मुसीबत बनती गई। प्लास्टिक की वजह से फैलने वाला प्रदूषण मनुष्य ही नहीं, समस्त प्राणिजगत के लिए जानलेवा साबित हो रहा है। इसी के चलते अब कई तरह के प्लास्टिक को प्रतिबंधित करना पड़ा है। बता रहे हैं प्रमोद भार्गव।

पर्यावरण संकट के लिए जिम्मेदार कारकों में से एक, एकल उपयोगी प्लास्टिक के उत्पादन और खरीद-बिक्री पर देश भर में एक जुलाई से प्रतिबंध लग गया है। एकल उपयोगी अर्थात सिंगल यूज प्लास्टिक ऐसा प्लास्टिक है, जिससे बनी चीजें केवल एक बार उपयोग कर फेंक दी जाती हैं। यही पर्यावरण के लिए सबसे ज्यादा नुकसानदायी साबित हो रही हैं। नतीजतन इस तरह के उन्नीस नगों पर रोक लगा दी गई है।

अगर कोई इन उत्पादों का निर्माण करता है, तो उसे सात साल की सजा और एक लाख रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है। हालांकि इस कानून की धारा पंद्रह में चिप्स और गुटखे की थैली को लेकर कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। ये खतरनाक इसलिए हैं, क्योंकि ये न तो पूरी तरह नष्ट होते हैं और न ही इन्हें जलाकर नष्ट किया जा सकता है। इनके टुकड़े पर्यावरण में जहरीले रसायन छोड़ते हैं, जो इंसानों और जानवरों के लिए खतरनाक होते हैं। साथ ही इनका कचरा बारिश के पानी को जमीन के नीचे जाने से रोकता है, जिससे जल का स्तर नहीं बढ़ पाता। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक देश में प्रतिदिन छब्बीस हजार टन प्लास्टिक कचरा निकलता है।

ऐसे बनता है प्लास्टिक

प्रयोगशाला में पहली बार रसायनों से प्लास्टिक का निर्माण 1915-16 में एलएच बैकलैंड नामक रसायनशास्त्री ने किया था। इस प्लास्टिक का नाम उन्हीं के नाम पर बेकेलाइट रखा गया। बेकेलाइट फेनाल और फार्मेल्डिहाइड के संयोग से प्राप्त होता है। बेकेलाइट से बनने वाली वस्तुओं का रंग गाढ़ा लाल, भूरा एवं काला होता है। इसका उपयोग खिलौनों से लेकर वाहनों के अनेक प्रकार के उपकरण बानाने में किया जाता है। कालांतर में इस बेकेलाइट प्लास्टिक पर निरंतर नए-नए प्रयोग होते रहे, नतीजतन इसके नए-नए रूप सामने आने लग गए। इसी का परिणाम है कि आज आम आदमी के जीवन में प्लास्टिक का महत्त्व दिन-प्रतिदिन अनिवार्य हो गया है। दैनिक उपयोग के साधारण बर्तनों से लेकर संचार और यातायात के साधनों में इसकी उपयोगिता लगातार बढ़ती जा रही है।

इसका मुख्य तत्व कार्बन होता है। कार्बन एक ऐसा तत्व है, जो लंबी शृंखला वाले यौगिकों का निर्माण करता है। मनुष्य ने पहला प्लास्टिक करीब सवा सौ साल पहले सैल्यूलाइड नाम से बनाया था। इसका निर्माण पेपर पल्स और काटन फाइबर से प्राप्त होने वाले सेल्युलोज से किया गया था। सेल्यूलोज एक जटिल संरचना वाला कार्बनिक यौगिक है, जिसे गरम करने पर साधारण संरचना वाले पदार्थ प्राप्त होते हैं।

जब इनकी प्रतिक्रिया नाइट्रिक अम्ल से कराई जाती है तो नाइट्रो सेल्युलोज नामक पदार्थ बन जाता है। इसे अम्ल से अलग करके धोया जाता है। फिर सुखाकर कपूर के साथ मिलाया जाता है। इस प्रक्रिया से एक नया पदार्थ प्राप्त होता है, जो गर्म करने पर मुलायम हो जाता है। इसी से चादरें और छड़ें बनाई जाती हैं। प्लास्टिक का यही सेल्युलाइड रूप आरंभिक स्वरूप था। इसी प्लास्टिक से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं बनाने की शुरुआत हुई। इसी ने आज प्लास्टिक को कई रूपों में बदल कर इसकी महिमा समूचे ब्रह्मांड में अनिवार्य बना दी। जो आज जीव-जगत के लिए संकट का सबब बन रही है।

पेट में प्लास्टिक

हम एक साल में पचास हजार माइक्रोप्लास्टिक के कण खा जाते हैं। माइक्रोप्लास्टिक यानी इंसान द्वारा ईजाद किए प्लास्टिक के छोटे-छोटे टुकड़े। इस समय पूरी दुनिया में ये अकेले ऐसे कण हैं, जो धरती, आकाश और पानी में सब जगह मौजूद हैं। इनके अनेक रूप हैं। सिंथेटिक कपड़ों से निकले टुकड़े, कान साफ करने की सलाइयों के टुकड़े, कार के टायरों और रोजमर्रा काम आने वाली वस्तुओं से निकले टुकड़े। पर्यावरण विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पत्रिका में प्रकाशित शोध के मुताबिक, किसी इंसान के शरीर में प्लास्टिक के कितने कण जाएंगे, यह इस बात पर निर्भर है कि वह किस वातावरण में रहता और क्या खाता है।

कनाडा के वैज्ञानिकों ने शोध के दौरान माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी के बारे में सैकड़ों आंकड़ों का विश्लेषण किया और इसकी तुलना अमेरिकी नागरिकों के खानपान की शैली से की। निष्कर्ष में पाया कि एक वयस्क इंसान एक साल में माइक्रोप्लास्टिक के करीब बावन हजार कण ग्रहण कर लेता है। ये भोजन-पानी के अलावा सांस लेने के जरिए भी चले जाते हैं। केवल सांस के जरिए ही 1.21 लाख माइक्रोप्लास्टिक के कण शरीर में जा सकते हैं। यानी हर दिन करीब तीन सौ बीस टुकड़े पेट में जाने-अनजाने पहुंच जाते हैं।

प्लास्टिक कचरा
हिमालय से लेकर धरती का हर जलस्रोत इसके प्रभाव से प्रदूषित है। वैज्ञानिकों का तो यहां तक दावा है कि अंतरिक्ष में कबाड़ के रूप में जो सत्रह करोड़ टुकड़े इधर-उधर भटक रहे हैं, उनमें बड़ी संख्या प्लास्टिक के कल-पुर्जों की है। नए शोधों से पता चला है कि अकेले आर्कटिक सागर में सौ से बारह सौ टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है। एक और नए शोध से ज्ञात हुआ है कि दुनिया भर के समुद्रों में पचास प्रतिशत कचरा केवल उन काटन बड्स का है, जिनका उपयोग कान की सफाई के लिए किया जाता है।

इन अध्ययनों से पता चला है कि 2050 आते-आते समुद्रों में मछलियों की तुलना में प्लास्टिक कहीं ज्यादा होगा। भारत के समुद्री क्षेत्रों में तो प्लास्टिक का इतना अधिक मलबा एकत्रित हो गया है कि समुद्री जीव-जंतुओं को जीवन-यापन करना संकट साबित होने लगा है। ध्यान रहे कि एक बड़ी आबादी का अहार समुद्री मछलियां हैं।

एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष 31.1 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है। यही वजह है कि समूचा ब्रह्मांड प्लास्टिक कचरे की चपेट में है। जब भी हम प्लास्टिक के खतरनाक पहलुओं के बारे में सोचते हैं, तो एक बार अपनी उन गायों की ओर जरूर देखते हैं, जो कचरे में मुंह मार कर पेट भरती दिखाई देती हैं। पेट में पालीथिन जमा हो जाने के कारण मरने वाले पशुधन की की खबरें भी आए दिन आती रहती हैं।

यह समस्या भारत की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की है। यह बात भिन्न है कि हमारे यहां ज्यादा और खुलेआम दिखाई देती है। एक तो इसलिए कि स्वच्छता अभियान कई रूपों में चलाए जाने के बावजूद प्लास्टिक की थैलियों में भरा कचरा शहर, कस्बा और गांव की बस्तियों के नुक्कड़ों पर जमा मिल जाता है। यही बचा-खुचा कचरा नालियों से होता हुआ नदी, नालों, तालाबों से बह कर समुद्र में पहुंच जाता है।

एडवांसेज नामक शोध-पत्रिका में छपे अध्ययन में बताया है कि आर्कटिक समुद्र के बढ़ते जल में इस समय सौ से बारह सौ टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है। यही वजह है कि समुद्री जल में ही नहीं मछलियों के उदर में भी ये टुकड़े पाए जाने लगे हैं। सबसे ज्यादा प्लास्टिक ग्रीनलैंड के पास स्थित समुद्र में मौजूद हैं। यही टुकड़े मांसाहार और पेयजल के जरिए मनुष्य के पेट में चले जाते हैं।

खून में प्लास्टिक

नीदरलैंड में हुए एक शोध के हैरान करने वाले परिणाम आए हैं। इस शोध में वैज्ञानिकों ने पाया कि मनुष्य के खून में माइक्रोप्लास्टिक पाए गए हैं। ये कण अत्यंत महीन थे। इस शोध ने एक नई चर्चा को जन्म दे दिया है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए बाईस स्वस्थ लोगों के रक्त के नमूने लिए थे। इनमें से सत्रह के खून में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण पाए गए। वैसे देखने में ये लोग पूरी तरह स्वस्थ थे, उन्हें कोई बीमारी नहीं थी। बावजूद जांच में कणों का पाया जाना हैरान करने वाला था।

क्योंकि वायु में प्रदूषण की वजह से सांस लेने के साथ मानव शरीर के भीतर प्लास्टिक कण धूल के कणों की तरह पहुंच रहे हैं। भीतर पहुंचने के बाद ये शरीर के अंगों को प्रभावित कर धीरे-धीरे उन्हें निष्क्रिय करने लगते हैं। ये अंगों से चिपक जाते हैं और उन्हें अवरुद्ध कर देते हैं। यह स्थिति कालांतर में खतरनाक साबित होती है। ये कण मनुष्य के दिमाग, पेट और बच्चों के प्लासेंटा में भी चिपके पाए हैं। ये कण सात सौ नैनोमीटर से बड़े पाए गए हैं। द एम्स्टर्डम यूनिवर्सिटी एंड मेडिकल सेंटर के इस शोध में दावा किया गया है कि अस्सी प्रतिशत लोगों के खून में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण मौजूद हैं।

मुसीबत की थैली

भारत का केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय महानगरों में प्लास्टिक कचरे का पुनर्चक्ररण कर बिजली और र्इंधन बनाने में लगा है। मध्यप्रदेश के इंदौर में इस दृष्टि से उल्लेखनीय कार्य हुआ है। यहां कचरे से अब बड़ी मात्रा में वाहनों के लिए र्इंधन बनाया जाने लगा है। नतीजतन इंदौर देश के स्वच्छ शहरों में तो गिना ही जाने लगा है, इस कचरे से र्इंधन का निर्माण कर युवाओं को रोजगार देने का काम भी किया है।

साथ ही प्लास्टिक के चूर्ण से शहरों और ग्रामों में सड़कें बनाने में सफलता मिल रही है। आधुनिक युग में मानव की तरक्की में प्लास्टिक ने अमूल्य योगदान दिया है। इसलिए कबाड़ के रूप में जो प्लास्टिक अपशिष्ट बचता है, उसका पुनर्चक्रण करना जरूरी है। क्योंकि प्लास्टिक के यौगिकों की यह खासियत है कि ये करीब चार सौ साल तक नष्ट नहीं होते हैं। इनमें भी प्लास्टिक की ‘पोली एथिलीन टेराप्थलेट’ ऐसी किस्म है, जो इससे भी ज्यादा लंबे समय तक जैविक प्रक्रिया शुरू होने के बावजूद नष्ट नहीं होती है। इसलिए प्लास्टिक का पुनर्चक्रण कर इससे नए उत्पाद बनाने और इसके बाद भी बचे रह जाने वाले अवशेषों को जीवाणुओं के जरिए नष्ट करने की जरूरत है।



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