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असली पर भारी नकली

जगदीश बाली

बस एक टिप्पणी यानी कमेंट और बस एक पसंद यानी लाइक और एक तस्वीर, एक खुद खींची तस्वीर यानी सेल्फी और एक खेल और…! यह आज मानव जीवन का हिस्सा बन चुके मोबाइल पर मशगूल आदमी की मनोस्थिति है। कुछ देर मोबाइल को न छुओ, तो लगता है वह आवाज दे रहा है! तुर्रा यह कि कुछ लोगों की बात एक मोबाइल से नहीं बनती, बल्कि वे दो-तीन मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं। कुछ लोगों का तो पता नहीं चलता कि वे गाड़ी चलाते-चलाते मोबाइल चला रहे हैं या मोबाइल चलाते-चलाते गाड़ी चला रहे हैं। कुछ समय बाद पता चलता है कि गाड़ी चलाने वाले साहब मोबाइल चलाते-चलाते किसी बड़ी गाड़ी से टकरा कर खुद चल बसे।

पांच इंच के परदे पर दुनिया तो जरूर सिमट आई है, पर जो निकट है, आदमी उससे दूर हो गया है। उसके पास अपने असल जीवन के लिए समय नहीं। घर हो या बाहर, कोई पार्टी हो या शादी समारोह, कोई सार्वजनिक जगह हो, लोग अमूमन मोबाइल पर नजरें गड़ाए नजर आते हैं। मोबाइल आदमी की आदत नहीं, लत बन गया है। लत ऐसी लगी है कि घड़ी-घड़ी हाथ मोबाइल टटोलने लगता है।

अब न मेहमानी करने का वह मजा रहा और न मेजबानी का वह आनंद। कभी मेहमान पांच इंच के परदे में रम जाता है तो कभी मेजबान। खाना खा रहे हों या चाय पी रहे हों, स्वाद का भी कोई स्वाद नहीं। कोई कुछ पूछ रहा है तो हां, हूं से काम चल रहा है। वास्तविक दुनिया की नमस्ते, सुप्रभात, हाय-बाय इतने महत्त्पूर्ण अब नहीं रहे, जितने फेसबुक, वाट्सऐप और ट्विटर के हो गए हैं।

लोगों को फेसबुक पर तो चेहरे पसंद आ रहे हैं, पर वास्तविक चेहरों के लिए वक्त नहीं। वाट्सऐप या फेसबुक में मगन गृहिणी को एहसास नहीं हो पाता कि दूध उबल कर कब चूल्हे को नहला गया। कभी भूल जाती है कि वह बच्चे को नहलाने के लिए टब में छोड़ आई है। दफ्तर में बाबू को पता नहीं चलता कि कब साहब उनके सामने से गुजर गए, क्योंकि बाबूजी तो वट्सऐप और फेसबुक बतकही में व्यस्त थे।

एक जमाना था जब लोग गांव के चौपाल पर इकट्ठा होकर देश-दुनिया की बातें किया करते थे। वहीं बातों-बातों में पता चल जाता था किस घर में किस बात की खुशी मनाई जा रही है और कौन-सा घर किस मुसीबत से गुजर रहा है। लोग चाचा, ताया या गांव के किसी दोस्त के घर आया-जाया करते थे। पर परिवर्तन के प्रवाह में गांव का वह चौपाल कहीं खो गया है और इसका स्थान ले लिया है पांच इंच के परदे पर आभासी दुनिया ने।

एक अध्ययन में बताया गया कि अगर आप किसी के साथ होते हुए उसे नजरअंदाज करते हुए मोबाइल पर केंद्रित हैं, तो इससे पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों पर नकारात्मक असर पड़ता है। मनोचिकित्सकों ने इस प्रभाव को ‘फबिंग’ कहा है। इसके चलते पारिवारिक रिश्तों में दूरियां आ रही हैं। खासकर पति-पत्नी के रिश्तों में दरार आ रही है, कई रिश्ते टूट रहे हैं।

पहले दादा-ददी और नाना-नानी की कहानियां और लोरियां सुनते-सुनते बच्चे सो जाया करते थे। वे लुका-छुपी, पिट््ठू, कंचे, गुल्ली डंडा, क्रिकेट, कबड््डी जैसे खेलों में मस्त रहते थे, पर अब उन्हें मोबाइल गेम चाहिए। कोरोना काल में तो बच्चों को एक और बहाना मिल गया। वैसे किताबें अलमारी में कैद हैं और मोबाइल पर घर-घर पाठशाला लगी है।

अभिभावक शिकायत करते हैं कि बच्चे मोबाइल पर पढ़ाई कम, और दूसरी गतिविधियां अधिक करते हैं। अस्पतालों में मोबाइल लत के मामले बढ़ रहे हैं। बच्चों की भूख मर गई है, तो किसी की नींद रूठ गई है। कोई चिड़चिड़ा हो रहा है, तो कोई गुस्सैल। किताब खोलने का तो साहब का मन ही नहीं करता। कोई स्मरणशक्ति खो रहा है, किसी की एकाग्रता भंग हो गई है। कुछ की आंखें खुजा रही हैं, किसी की धुंधला रही हैं।

उधर ‘सेल्फी’ का शौक भी जानलेवा बना हुआ है। किशोर और युवा रोमांचक सेल्फी लेने के लिए खतरनाक जगहों पर चले जाते हैं। ऐसा करते हुए कई नदी में डूब जाते हैं, तो कई पहाड़ से गिर जाते हैं। वे ट्रेन या गाड़ियों से भी टकरा जाते हैं। बच्चों और युवाओं की स्थिति चिंतनीय है। वे इंटरनेट का इस्तेमाल चैटिंग, गेम खेलने, पोर्नोग्राफी देखने के लिए करते हैं। चैटिंग यानी गपशप के दौरान दी गई सूचना के आधार पर कई अपराध भी अंजाम दिए जाते हैं।

फेसबुक या वाट्सऐप पर दिखाए गए सब्जबाग वास्तव में होते ही नहीं हैं या बहुत महंगे साबित होते हैं। निस्संदेह विज्ञान द्वारा प्रदत्त अन्य सुविधाओं की तरह इंटरनेट के भी अपने गुण और दोष हैं। यह ज्ञान का भंडार और बेशुमार मानव सुविधाओं का पिटारा है, वहीं इसका अविवेकपूर्ण और अंधाधुंध इस्तेमाल घातक है। कहा जा सकता है, ‘ये दर-ओ-दीवार अब मुरझाने लगे हैं, जब से बच्चे मोबाइल चलाने लगे हैं।’

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