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हाथी पर सवार दलित मतदाताओं पर सबकी निगाहें

इसमें कोई संदेह नहीं कि बसपा धरातल पर प्रचार और चुनावी तैयारी को लेकर चाहे जितनी कमजोर दिखे पर उसका दलित वोट बैंक अभी भी उसके साथ बना हुआ है। कम से कम मायावती की बिरादरी के जाटव और चमार मतदाता तो उनका साथ छोड़ने को कतई तैयार नहीं। मुफ्त अनाज और रसोई गैस सिलेंडर जैसे फायदे भाजपा ने उन्हें चाहे जितने दिए हों पर भाजपा के प्रति उनके दिल-दिमाग में यह आशंका गहरे तक बैठ चुकी है कि अगड़ों की यह पार्टी उनका आरक्षण खत्म कर देगी। सरकारी नौकरियों में लगातार हो रही कटौती उनकी इस चिंता को और बढ़ा रही हैै। सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने और खाली पदों पर भर्तियों को लटकाने के उदाहरण भी बसपा की तरफ से दलितों के बीच लगातार पेश किए जा रहे हैं।

लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद मायावती ने सपा से गठबंधन तोड़ लिया था। इतना ही नहीं दो साल बाद हुए राज्यसभा चुनाव में उन्होंने यह कहते हुए भाजपा का समर्थन किया था कि उनके लिए सपा दुश्मन नम्बर एक है। चुनाव प्रचार में भी मायावती सत्तारूढ़ भाजपा पर कम, सपा और कांगे्रस पर ज्यादा हमलावर हैं। कांगे्रस और सपा दोनों ही उनके दलित वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश कर रहे हैं। इससे मायावती में कुछ घबराहट तो है भी। लेकिन उन्हें धरातल पर इस बात का अहसास हो रहा है कि सपा-रालोद गठबंधन से संख्या में कहीं ज्यादा मुसलमान उम्मीदवार खड़े करने के बावजूद इस बार चुनाव में सूबे के मुसलमान की पहली पसंद सपा-रालोद गठबंधन ही है।

जाटों को पटाने के लिए भाजपा ने पहले तो जयंत चौधरी पर डोरे डालने का दांव चला। फिर यह कहकर नया पैंतरा आजमाया कि अखिलेश यादव की सरकार बनी तो उसमें जयंत चौधरी कहीं नहीं होंगे। उनकी जगह आजम खान होंगे। मकसद जाट और मुसलमान के बीच 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे से पैदा हुई खाई को किसान आंदोलन के कारण पाटने के प्रयासों को पलीता लगाना ही रहा होगा। अभी भी भाजपा को भरोसा है कि मुसलमान मतदाता एमआइएम, कांगे्रस और बसपा के बीच बंटेंगे। कम से कम उन सीटों पर जरूर जहां इन पार्टियों के उम्मीदवार मुसलमान हैं।

अखिलेश यादव की पराजय के दूसरे कारण भी थे। एक तो उनके परिवार के विवाद ने उनके यादव वोट बैंक को ही तितर-बितर किया था। उनके चाचा शिवपाल यादव की जमीनी पकड़ ने भी उनका नुकसान किया था। ऊपर से वे कांगे्रस के साथ चुनावी गठबंधन कर बैठे। जिसका उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने ही खुलकर विरोध किया था। अखिलेश को लगता था कि कांगे्रेस के साथ आने से उन्हें अगड़ों का कुछ वोट तो हासिल होगा ही, सलमान वोट बैंक एकमुश्त उनके गठबंधन के साथ आएगा। पर ऐसा हुआ नहीं। अपने हिस्से की सौ से ज्यादा सीटों में से कांगे्रस केवल सात सीटें ही जीत पाई। अमेठी और रायबरेली लोकसभा क्षेत्रों तक की सारी विधानसभा सीटें उसे नसीब नहीं हुई। यहां तक कि चार-छह जिलों में ही प्रभाव रखने वाली अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल तक ने कांगे्रस से ज्यादा यानि नौ सीटें जीत ली थी।

योगी सरकार के कामकाज से बड़े वर्ग की नाराजगी और किसानों के आंदोलन का लाभ तो अखिलेश और जयंत की जोड़ी को मिलने की उम्मीद है ही, महंगाई, बेरोजगारी और कोरोना संक्रमण के दौरान दिखी सरकार की लचर व्यवस्था जैसे मुद्दों पर भी सपा रालोद गठबंधन आशान्वित है। जफ्फरनगर जिला इसी रणनीति की बानगी है। जहां अखिलेश और जयंत की जोड़ी ने जिले की छह सीटों में से एक पर भी किसी मुसलमान को उम्मीदवार नहीं बनाया है। इसके पीछे सोच भाजपा के धु्रवीकरण के हथकंडे को कामयाब नहीं होने देने की ही है।

मुसलमान मतदाता भी मोटे तौर पर इस हकीकत को समझ रहा है कि मुकाबला इस बार दो धु्रवीय ही है। बसपा, कांगे्रस, आम आदमी पार्टी और एमआइएम की हैसियत न ज्यादा सीटें जीत पाने की है और न सरकार बना पाने की। सपा-रालोद गठबंधन अगर मुसलमानों से ऐसे बर्ताव की उम्मीद में है तो भाजपा भी चाहेगी कि बसपा और कांगे्रस के गैर मुसलमान उम्मीदवार हिदू मतों का बंटवारा कर उसे नुकसान न पहुंचा पाएं। मायावती दलितों के अलावा और किस वर्ग का समर्थन हासिल कर पाएंगी, भाजपा और सपा-रालोद गठबंधन की सफलता पर यह तथ्य कमोवेश असर जरूर डालेगा।

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