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धामी बनाम रावत : युवा और अनुभव के बीच मुकाबला

पिछले वर्ष जुलाई में उत्तराखंड के सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने के केवल छह माह बाद पुष्कर सिंह धामी के सामने आगामी विधानसभा चुनाव में सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस ‘करो या मरो’ का युद्ध लड़ रही है। धामी के समक्ष कांग्रेस की अगुआई कर रहे हैं हरीश रावत जैसे अनुभवी महारथी। हालांकि, धामी नया चेहरा हैं लेकिन अनुभवी रावत के सामने भाजपा के लिए अधिकतम सीटें जिताने का लक्ष्य हासिल करना उनके लिए आसान नहीं है। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए रावत दो सीटों से चुनाव हारने के बावजूद उत्तराखंड की राजनीति में सबसे लोकप्रिय चेहरों में से एक हैं। कई सर्वेक्षणों में भी वे मुख्यमंत्री पद के सबसे पसंदीदा उम्मीदवारों के रूप में सामने आए हैं।

रावत को उम्मीद है कि भाजपा सरकार के खिलाफ चल रही सत्ता विरोधी लहर का फायदा कांग्रेस को जरूर मिलेगा। जहां भी वे जा रहे हैं, वहां वे प्रदेश में बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आने के बावजूद भाजपा द्वारा पांच साल में तीन मुख्यमंत्री देने, मंहगाई और बेरोजगारी के बढ़ने का बात उठा रहे हैं।

प्रदेश में बारी-बारी से दोनों पार्टियों के सत्ता में आने की अब तक की परंपरा को देखते हुए भी इस बार कांग्रेस की उम्मीदों को पंख लगे हुए हैं। दूसरी तरफ भाजपा पांच साल में विभिन्न क्षेत्रों में शुरू हुई विभिन्न विकास परियोजनाओं के कारण अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। अपनी वर्चुअल सभाओं में भाजपा के नेता जनता से ‘डबल इंजन की सरकार’ को एक और मौका देने को कह रहे हैं जिससे अधूरी परियोजनाओं को पूरा किया जा सके। धामी ने खुद माना कि उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में कम समय मिला, लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात का संतोष है कि उन्होंने अपने कार्यकाल का एक-एक क्षण प्रदेश की 1.25 करोड लोगों की सेवा में लगाया। धामी ने कहा, ‘केवल छह माह के छोटे से समय में हमने 550 से अधिक निर्णय लिए और उन पर कार्रवाई की। कांग्रेस की पिछली सरकार ने केवल घोषणाएं कीं जो कभी पूरी नहीं हुईं।’

छोटा होने के बावजूद धामी का कार्यकाल चुनौतियों से भरा रहा, जहां उन्हें चारधाम देवस्थानम बोर्ड के गठन को लेकर तीर्थ पुरोहितों के आक्रोश, कोविड की दूसरी लहर के प्रकोप और हरिद्वार कुंभ पर लगे सुपरस्प्रेडर के आरोपों का सामना करना पड़ा। इसके बाद पिछले साल नवंबर में बारिश से मची तबाही और इसमें अनेक लोगों के मरने की घटना ने भी उनका इम्तहान लिया। धामी ने चारधाम देवस्थानम बोर्ड को भंग करने का निर्णय लेकर तीर्थ पुरोहितों की नाराजगी को समाप्त कर दिया और अपने राजनीतिक कौशल का जबरदस्त परिचय दिया। राज्य मंत्रिमंडल में अपने से अधिक अनुभवी मंत्रियों के होने के बावजूद धामी सबको साथ लेकर चले। इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सार्वजनिक मंचों से धामी की तारीफ की।

हालांकि, चुनावों में अपनी पार्टी को दोबारा सत्तासीन करने के अलावा, उनके पास दूसरी चुनौती मुख्यमंत्रियों के स्वयं चुनाव में हार जाने की परंपरा को भी तोड़ना है। राजनीतिक विश्लेषक जेएस रावत ने कहा, ‘उत्तराखंड में मुख्यमंत्री कभी भी नहीं जीतते। वर्ष 2002 में नित्यानंद स्वामी हारे, 2012 में भुवनचंद्र खंडूरी हारे और 2017 में हरीश रावत दोनों सीटों से हार गए।’

उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले एकमात्र मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी ने चुनाव ही नहीं लड़ा। खटीमा से चुनाव लड़ रहे धामी का मुकाबला इस बार फिर कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष भुवनचंद्र कापडी हैं, जिन्हें उन्होंने पिछले चुनाव में 2709 मतों से हराया था। हालांकि, आम आदमी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष एसएस कलेर की मौजूदगी इस सीट पर मुकाबले को और दिलचस्प बना सकती है। रावत ने कहा, ‘केंद्र द्वारा तीनों कृ षि कानूनों को वापस लिए जाने के बावजूद यह मुद्दा अभी भी बना हुआ है और खटीमा में सिखों और किसानों की अच्छी संख्या का होना धामी के लिए चुनौती की तरह है।’

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