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क्यों बनाएं काम को पहाड़

कभी-कभी हम अपने काम का जरूरत से ज्यादा दबाव ले लेते हैं। लेकिन हमारा काम सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। बाद में हमें लगता है कि हम तो बिना वजह ही घबरा रहे थे। कई बार तो काम से पहले की अव्यवस्था देखकर लगता है कि हमारा काम किसी भी हालत में पूरा नहीं होगा। दरअसल किसी भी काम के प्रति हमारी चिंता और इसके माध्यम से काम पूरा करने का प्रयास ही हमारे लिए जादू की छड़ी बन जाता है। कई बार काम एक पहाड़ बनकर हमारे सामने आता है। दरअसल इस प्रक्रिया के पीछे कई तरह के मनोवैज्ञानिक कारण काम करते हैं।

अगर हम मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर हो जाते हैं तो इसका प्रभाव हमारे काम पर भी पड़ता है। किसी भी काम से पहले उसकी थोड़ी चिंता होना स्वाभाविक है। चिंता के बिना कोई काम संभव नहीं हो सकता। जब हमें काम की थोड़ी-बहुत चिंता होगी, तभी हम उसे पूरा करने का प्रयास करेंगे। यह जरूरी नहीं कि काम के प्रति थोड़ी-बहुत चिंता हमें मनोवैज्ञानिक रूप से भी कमजोर करें। बल्कि वास्तविकता तो यह है कि काम के प्रति थोड़ी-बहुत चिंता हमें मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूत बनाती है।

दरअसल कोई भी काम उन लोगों को पहाड़ दिखाई देता है जो इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। कुछ लोगों की काम के प्रति गंभीर रवैया न अपनाने की आदत होती है। ऐसे लोग काम टालते रहते हैं। यह आदत यह प्रदर्शित करती है कि हम जिम्मेदारियों से बचना चाहते हैं। जब हम जिम्मेदारियां नहीं लेते हैं तो हमारा रवैया गैरजिम्मेदाराना हो जाता है। यही काम के प्रति हमारे लगाव को कम करता है।

ऐसे में हम पग-पग पर लापरवाही बरतने लगते हैं। गैरजिम्मेदार व्यक्ति न तो परिवार में सम्मान योग्य होता है और समाज में। कोई भी व्यक्ति अपने काम के माध्यम से ही परिवार, कार्यालय और समाज में अपना विश्वसनीय स्थान बनाता है। किसी भी कार्यालय में काम न करने वाले कर्मचारी की पहचान अलग ही हो जाती है। ऐसे कर्मचारी को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। जबकि काम करने वाले कर्मचारी को अलग ही सम्मान मिलता है। इसलिए काम से भागकर हम वास्तविकता से मुंह चुराने की कोशिश करते हैं। हमें यह पता होता है कि यह काम हमें ही करना है, इसके बावजूद हम आंखें मूंद लेते हैं।

दरअसल काम के प्रति गंभीर लोगों को भी मनोवैज्ञानिक दबाव झेलना पड़ता है। इसलिए ईमानदार लोगों को भी काम के सिलसिले में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यही कारण है काम के प्रति गंभीर और ईमानदार लोग अवसाद की स्थिति तक भी पहुंच जाते हैं। कई बार हम आशंकाओं में जीते हैं। किसी काम के सिलसिले में ये आशंकाएं और अधिक बढ़ जाती है।

हमारा अधिकारी या कोई अन्य जब हमें कोई काम सांैपता है तो उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए बरती गई सतर्कता हमारे ऊपर एक दबाव बनाती है। हमारे प्रतिद्वंदी भी हमें लगातार पीछे धकेलने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोग चाहते हैं कि हमें सौंपा गया काम ठीक तरह से सम्पन्न न हो। इन लोगों का व्यवहार भी हमारे ऊपर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाता है।

इन सब दबावों से जूझते हुए जब हम किसी काम को पूरा करने की प्रक्रिया का हिस्सा बनते हैं तो हमें यह काम पहाड़ लगने लगता है। इस पहाड़ को फतह करने के लिए हम अपने प्रयास जारी रखते हैं और हमारा काम सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। इस समय की आत्मसन्तुष्टि पिछले सारे दबावों पर भारी पड़ती है। एक काम खत्म होता है तो दूसरा काम हमारी देहरी पर आ खड़ा होता है। शायद इन्हीं कामों की वजह से हमारी जिंदगी का अर्थ भी है। दरअसल जब कोई भी काम हमारे लिए एक चुनौती बन जाता है तो उसे पूरा करने में मजा भी आने लगता है। तो हम काम को पहाड़ क्यों बनाएं।

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