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मझधार में अफगानिस्तानी क्रिकेट

संदीप भूषण

अफगानिस्तान फिलहाल राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा है। अमेरिकी सैनिकों की स्वदेश वापसी और तालिबानी लड़ाकों के दोबारा प्रभावी होने से पूरा देश बेहाल है। इस संकट के समय में खेल के बारे में कोई बात करना या उसके भविष्य की चिंता करना हर तरह की प्राथमिकता से बाहर है। अभी अफगानी अवाम की चिंता देश में शासन की स्थिरता, सुरक्षा और भूख से पार पाना है। बावजूद बदले हालात के इस दौरान क्रिकेट की कुछ बात जरूर मौजूं हो चली है। गेंद और बल्ले के यह खेल चार करोड़ आबादी वाले मुल्क के लिए शांति का पैगाम लाया है। अफगानिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने कुछ सालों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई है। उन्होंने दुनिया को बताया कि अगर सब कुछ ठीक रहे तो अपनी प्रतिभा से वे क्या कर सकते हैं।

महज दो दशक पहले इस खेल में पूर्ण रूप से पदार्पण के बाद जितनी तेजी से उन्होंने सफलता की सीढ़ियां चढ़ीं, वह काबिले तारीफ है। पर अब अफगानिस्तान पर तालिबन के कब्जे के बाद वहां इस खेल का भविष्य, उसके टी-20 विश्व कप में शामिल होने और देश में इसके विकास को लेकर कई सवाल उठने लगे हैं।

दरअसल, तालिबान चरमपंथी संगठन है। लोकतांत्रिक मूल्यों से उसका कोई वास्ता नहीं। काबूल पर कब्जे के बाद अफगान खिलाड़ियों को अपनी और परिवार की सुरक्षा और खेलों के विकास को लेकर चिंता सताने लगी है। यही कारण है कि इंग्लैंड में ‘द हंड्रेड’ खेल रहे दिग्गज स्पिनर राशिद खान और मोहम्मद नबी ने विश्व के नेताओं से मदद की अपील की है। हालांकि अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने एक साक्षात्कार में यह दावा किया है कि तालिबान से क्रिकेट को कोई खतरा नहीं है। खिलाड़ियों के परिवार सुरक्षित हैं और क्रिकेट के विकास या टूर्नामेंंटों में टीम की भागीदारी पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। उनका मानना है कि 1996 से 2001 तक के शासन में तलिबान ने क्रिकेट को बढ़ावा दिया। वे इस खेल के प्रशंसक और खिलाड़ियों के मुरीद हैं।

टी-20 विश्व कप और आइपीएल में भागीदारी

अफगानिस्तान में क्रिकेट की पहली संस्था 1995 में बनी। यहां की टीम में ज्यादातर वैसे खिलाड़ी थे जो सोवियत रूस के देश के शासन में दखल के बाद पाकिस्तान के शरणार्थी कैंपों में रहते थे। इन्होंने वहीं से क्रिकेट का ककहरा सीखा। 1996 में तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद साल 2000 तक खेल में कोई खास विकास नहीं देखा गया।

हालांकि यह भी सच है कि उसने 2000 में जिस एकमात्र खेल को देश में इजाजत दी वह क्रिकेट था। 2001 में अमेरिकी दखल से जनता की चुनी हुई सरकार आने के बाद अफगान क्रिकेट ने तेजी से विकास किया। विश्व की शीर्ष क्रिकेट संस्था से मान्यता मिलना और टी-20 से टैस्ट मैचों तक का सफर, वहां के खिलाड़ियों की प्रतिभा की बानगी है। फटाफट क्रिकेट की रैंकिंग में बांग्लादेश, श्रीलंका, वेस्ट इंडीज, आयरलैंड और जिंबाब्वे जैसे देशों को पीछे छोड़कर उसने शीर्ष दस में जगह बनाई है। विश्व कप में सीधे क्वालिफाई करने वाली आठ टीमों में अफगानिस्तान भी शामिल है।

हालांकि इसी साल अक्तूबर-नवंबर में होने वाले टी-20 क्रिकेट विश्व कप में उसके खेलने को लेकर संशय बरकरार है। अफगानिस्तान बोर्ड के अधिकारियों के आश्वासन के बाद भी यह तय नहीं माना जा सकता कि टीम इस वैश्विक टूर्नामेंट में खेल पाएगी या नहीं। इसके पीछे कई कारण भी हैं। तालिबान ने काबुल सहित देश में मौजूद छह बड़े क्रिकेट स्टेडियम पर कब्जा जमा लिया है। ऐसे में खिलाड़ियों के अभ्यास और उन्हें मिलने वाली सुविधाएं तालिबान के रुख पर निर्भर करेंगी।

वहीं आइपीएल में खेलने को लेकर भी कई तरह की पेचीदगियां बाकी हैं। राशिद और नबी जिस फ्रेंचाइजी का हिस्सा हैं उन्होंने इनके खेलने पर मुहर लगाई है। लेकिन, अभी भी भारत सरकार का इस मसले पर क्या रुख रहता है, इसका इंतजार रहेगा। वैसे भारत का मानना है कि वह ताकत के दम पर सत्ता हासिल करने वाले को मान्यता नहीं देगा। ऐसे में तालिबानी शासन के तले क्रिकेटरों के भविष्य पर सवाल है।

तालिबान का क्रिकेट के प्रति रवैया

तालिबान के लड़ाके इसे अपना पसंदीदा खेल बताते हैं। उन्हें राशिद खान भी बेहद पसंद हैं। एक किताब ‘द तालिबान क्रिकेट क्लब’ में लेखक तिमेरी एन. मुरारी ने क्रिकेट और तालिबान के रिश्ते पर बात की है। उन्होंने बताया है कि ‘साल 2000 में जब क्रिकट से प्रतिबंध हटा कर इस खेल को आगे बढ़ाया तो वह मेरे लिए सपने जैसा था।’ साथ ही उन्होंने इस किताब में वैश्विक स्तर पर अपने शासन को वाजिब ठहराने के लिए क्रिकेट को कैसे हथियार बनाया, इसका भी जिक्र किया है। रॉयटर्स के एक लेख के मुताबिक तालिबान के एक कमांडर ने क्रिकेट पर अपनी राय रखते हुए कहा था कि जब अफगानिस्तान की टीम किसी के साथ खेलती है तो हमलोग रेडियो पर इसे सुनते हैं। यह उन्हें अच्छा लगता है।

भारत के लिए क्रिकेट कूटनीति का रास्ता

अफगानिस्तान में राजनीतिक उथल-पुथल पर भारत नजर बनाए हुए है। उसने दो दशक में दो अरब डॉलर का निवेश इस देश के ढांचे को मजबूत बनाने के लिए किया है। तालिबान के शासन में यहां चल रही सभी विकास की परियोजनाओं पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। उसने यहां क्रिकेट के विकास पर भी काफी पैसे खर्च किए हैं। 2016 में ग्रेटर नोएडा के शहीद पथिक सिंह स्टेडियम को अफगानिस्तान के घरेलू मैदान के रूप में बदले जाने के बाद से ही भारत के साथ उसके ‘क्रिकेट रिश्ते’ में काफी मजबूती देखी गई।

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